तरुण जी से मेरी पहचान लाइब्रेरी की वजह से हुई। जहाँ मैं प्रतियोगी परीक्षाओं
की तैयारी के सिलसिले में जाया करता था। जबकि वे वहाँ अपने विशद सामान्य ज्ञान
को गूढ़ से गूढ़तर बनाने आया करते थे। मैं कंपटीशन की किताबों में उलझा रहता तो
वे साहित्य, अखबार और इंडिया टुडे सरीखी पत्रिकाओं में सर गड़ाए रहते। देखादेखी
तो कई बार हुई मगर असल में परिचय की शुरुआत रास्ते में हुई। एक दिन दोनों घर
से निकलकर लाइब्रेरी की ओर ही आ रहे थे। इसका प्रमाण था दोनों के हाथों में
किताबें थीं। लाइब्रेरी हमारे कॉलोनी से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर होगी।
चूँकि हम दोनों एक ही कॉलोनी के रहने वाले थे, रास्ते भी एक थे, मंजिल भी एक
थी। साथ-साथ चल रहे थे तो बातचीत न करना अजीब होता। हमारी आँखें मिलीं। मैं
मूर्खतापूर्ण ढंग से पूछना चाहता था कि वे वही सवाल पूछ बैठे,
'लाइब्रेरी जा रहे हैं?'
'हाँ...'
फिर जानते हुए भी दूसरा अहमकाना सवाल मैंने कर डाला।
'कहाँ रहते हैं आप...?'
'चार नंबर रोड में... आपको तो देखे हैं कई बार... पाँच नंबर रोड में रहते
न...?'
फिर वे शुरू गए। मुझे बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए जोर नहीं लगाना पड़ा।
उन्होंने अपनी आत्मकथा सुनानी शुरू कर दी। बीच-बीच में मेरे विषय में भी कुछ
दरियाफ्त कर लेते थे। मसलन क्या करते हैं? कब रिजल्ट आएगा? हालाँकि, मुझे शक
हो रहा था कि वे मेरे जवाब सुन भी रहे हैं। क्योंकि थोड़े-थोड़े अंतराल पर फिर
वही सवाल वे दुहराते। खैर, लाइब्रेरी तक आते-आते उनकी संक्षिप्त जीवनी, उनके
परिवार के विषय में मैं जान चुका था। उनके पास कई दुर्लभ किस्म की डिग्रियाँ
हैं; अभी भी वे पत्राचार से मॉस कॉम का कोर्स कर रहे हैं। उनके परिवार में
उनके अलावा दो छोटे भाई हैं। वे मुंबई भी नौकरी करने गए थे, लेकिन सेहत ने दगा
दे दिया, सो, वापस आ गए। उस दिन लाइब्रेरी से हम साथ ही लौटे। फिर तो रोज के
हमारा मिलना-जुलना हो गया। लाइब्रेरी भी हम तकरीबन साथ आने-जाने लगे। मैं
जे.पी.एस.सी. के रिजल्ट आने का इंतजार कर रहा था लाइब्रेरी में मेरा ज्यादा
वक्त बीतता। इस दरम्यान तरुण जी के विषय में कई बातें जान चुका था। देश-दुनिया
के तमाम मसले पर उनकी जानकारी आश्चर्यजनक थी। अखबारों और पत्रिकाओं को चाट
जाने की आदत की वजह से किसी मुद्दे पर वे किसी से भी बहस कर सकते हैं। किसी
मद्रासी से मद्रास के बारे में या किसी कंप्यूटर एक्सपर्ट से कंप्यूटर के विषय
में वे ज्यादा जानकारी रखते।
जनलोकपाल लागू करने को लेकर अन्ना आंदोलन चल रहा था। दूसरी बार अन्ना हजारे
अनशन पर बैठने वाले थे। पहले दौर में देश भर में लोग उनके समर्थन में सड़कों पर
उतर आए थे। जमशेदपुर में भी आंदोलन के समर्थन में धरना-प्रदर्शन हो रहे थे,
जुलूस निकाले जा रहे थे। छिटपुट तरीके से कई तरह के लोग आंदोलन के समर्थन
जुलूस-रैली निकाल रहे थे। व्यवस्थित तरीके से केवल साकची गोलचक्कर पर भी
इंडिया अगेंस्ट करप्शन, जमशेदपुर के बैनर तले कुछ लोग धरने पर बैठते थे।
अखबारों में रोज उनकी खबरें आतीं। इस बार भी धरने की खबरें आने लगीं। मुझे लगा
भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन में मुझे भी कुछ योगदान देना चाहिए। मेरा मन कचोट
रहा था कि इधर-उधर अड्डाबाजी करके अपना वक्त जाया करता हूँ, पर दो घंटे जाकर
धरने में बैठ नहीं सकता। मैं भी उन्हीं लोगों की मानिंद हो रहा हूँ जो केवल
शिकायत करते रहते हैं, पर घर से निकलकर किसी आंदोलन में शिरकत करने की जहमत
नहीं उठाते। आखिर जे.पी.एस.सी. घोटाले का मैं स्वयं ताजातरीन पीड़ित था। पिछली
बार जे.पी.एस.सी. परीक्षा में भारी गड़बड़ी हुई थी। जिसमें नेताओं, अफसरों और
रसूखदारों के नाते-रिश्तेदारों की नियुक्ति परीक्षा में गड़बड़ी कर की गई थी।
सर्वदलीय किस्म का था यह घोटाला। इस वजह से सभी सियासी दलों के खिलाफ मैं उबल
रहा था। तरुण जी आशंका जता ही रहे थे कि इस बार भी घपला न हों, इसकी क्या
गारंटी? मेरा पक्का मानना था कि मुझे इस आंदोलन में भागीदारी निभानी चाहिए।
वैसे भी मैं फुर्सत में था। समस्या यह थी कि मैं अकेले धरने में शामिल होने से
सकुचा रहा था। मुझे लगा कि तरुण जी को साथ ले सकता हूँ। सियासत के विषय में
उनके विचार काफी सख्त थे। अक्सर राजनेताओं को गाली देते रहते। अन्ना आंदोलन के
बारे में उनका मानना था कि 'हाँ, अब यहाँ भी होगा यह सब। मिश्र और ट्यूनीशिया
की तरह लोगबाग भारत में भी नेताओं को मारेंगे। यहाँ भी खूनी क्रांति होनी
चाहिए। नेताओं को घर से खींच-खींचकर सड़कों पर लाकर काट देना चाहिए। सालों ने
देश को लूटकर बर्बाद कर दिया है। ये तो अँग्रेजों से भी घटिया हैं, जो अपने
देश को ही लूट रहे हैं...' मुझे यकीन था कि वे जरूर चलेंगे। मैंने उन्हें कहा,
'चले कल से हम भी अन्ना आंदोलन में शामिल होंगे।
'अरेऽऽ... यार आंदोलन-फांदोलन से क्या होगा...?'
वे शुरू हो गए, लोकपाल की निरर्थकता गिनाने लगे।
'वाहऽऽ! ...उस दिन नेताओं को घर से निकालकर काट देने की सलाह दे रहे थे... और
चलकर धरने में एकाध घंटे बैठने को कहने पर करने लगे नखरा।'
'नेताओं को काटने चलिए चलता हूँ कि नहीं।'
'बतियाने लगे होशियारी। धरने में बैठने में तो नानी मरने लगी। नेताओं को मारने
चलेंगे।'
उन्हें राजी करने के लिए मुझे लंबी-चौड़ी तकरीर करनी पड़ी। बुरी तरह से मैंने
उन्हें घेर लिया। तब जाकर वे माने। दूसरे दिन हम दोनों पहुँचे साकची गोलचक्कर
धरने में शामिल होने। गोलचक्कर के बीचोंबीच बनी लोहे की रेलिंग से घिरे गोल
पार्क के भीतर धरना चल रहा था। लाउडस्पीकर पर 'कर चले हम फिदा जानोतन
साथियोंऽऽऽ अब तुम्हारे हवाले वतन साथियोंऽऽऽ' गाना बज रहा था। धरने में
तकरीबन दो दर्जन लोग शामिल थे। थोड़ा झिझकते-सकुचाते हुए हम भी भीतर गए। एक
अधेड़ शख्स ने हमारी आगवानी की, 'आइए... आइए, यहाँ बैठिए।' उन्होंने अपने बगल
में बैठने का इशारा किया। हम उनके बगल में बैठ गए। थोड़ी देर चुप रहने के बाद
उन्होंने हमसे कुछ पूछा मगर गाने के शोर की वजह से उनकी आवाज हमें सुनाई नहीं
दे रही थी।
खीझकर उन्होंने कहा, 'बंद कराइए गाना... दुबे जी। भाषण शुरू कराइए।'
उन्होंने धोती-कुर्ता पहने, टीका लगाए चोटीधारी तकरीबन साठ वर्ष के एक शख्स से
यह कहा था। जिससे हम जान गए कि यह आदमी दुबे जी हैं। हमारी आगवानी करने वाले
राजेश्वर जी थे। दुबे जी ने माइक थामा। विषय प्रवेश कराकर साधु जैसे हुलिया
वाले रामअवध जी को माइक थमाया। वे शुरू हो गए।
गोलचक्कर सभी किस्म के मार्गों का मिलन स्थल बन गया था। वामपंथी, दक्षिणपंथी,
मध्यमार्गी, जेपीवादी, मंडलवादी, कमंडलवादी, झारखंडवादी सभी तरह की धाराएँ मिल
गई थीं - जिस कारण आंदोलन समुद्र की तरह ठाठें मारने लगा। विचाराधारा के बाड़े
टूट गए थे। मुल्क की चिंता में दुबले हुए जा रहे पत्रकार, चित्रकार,
विचित्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता, विकलांग पार्टी के कर्ताधर्ता से लेकर
आदिवासी महासभा के नुमाइंदे तक आंदोलन में शामिल थे। केवल अपना घर भरने की
ग्लानि से भरे नौकरीपेशा लोग... युवा - जिन्हें मलाल था आजादी की लड़ाई में न
शामिल हो पाने का... टुटपुंजिए छात्र नेता (तरुण जी के कथनानुसार - जिन्हें
मौका मिले तो पशुओं का चारा भी हजम कर जाए।) सभी इस आंदोलन में शामिल थे। हाँ,
सूचनाधिकार कानून के साथ पैदा हुई एक नई नस्ल के जीव 'आरटीआई कार्यकर्ता' भी
यहाँ प्रचुर मात्रा में मौजूद थे। प्रमोद ठाकुर, राकेश महतो, सुबोध ठाकुर तथा
मो. बशीर जनलोकपाल के लिए अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे। बाबा रामदेव के कई चेले
भी आ गए। जिन्हें उनके संगठन में पर्याप्त सम्मान (बकौल तरुण जी - सम्मान नहीं
सामान) नहीं मिला था। इनके लिए देशहित सर्वोपरि था, संगठन गौण। ये परिवर्तन के
लिए उतावले थे। सबका एकमात्र मकसद था - भ्रष्टाचार मिटाना।
हम रोजाना धरने में शामिल होने जाने लगे। तरुण जी को भी वहाँ बातचीत करने के
लिए कुछ लोग मिल जाते थे। बेधड़क किसी से भी बातचीत करने की आदत के कारण तरुण
जी का जल्द ही काफी लोगों से परिचय हो गया। इस चित्र-विचित्र जमावड़े में वे
जल्द ही रम गए। निंदा-चुगली वहाँ खूब होती। बतरस के शौकीन तरुण जी को वहाँ मजा
आने लगा। मैं जाने में आनाकानी करता तो वे मुझे ठेलकर वहाँ ले जाते।
अहिस्ता-अहिस्ता आंदोलन में शामिल लोगों से भी मैं परिचित होने लगा था। कुछ
प्रत्यक्ष तो ज्यादा वाया तरुण जी कई कहानियाँ सुनने को मिलीं। दिन भर जुटाई
गईं अपनी निंदात्मक किस्म की सूचनाएँ तरुण जी आने-जाने के दौरान मुझसे साझा
करते। वे धरने से ज्यादा गुफ्तगू में मसरूफ रहते। अपने जानिब मैं संजीदगी से
भ्रष्टाचार मिटाने की कोशिश करता। स्वयं सेवक की भाँति मैं खुद को व्यस्त रखता
या चुपचाप बैठा भाषण सुनता या सुनने का भाव धारण किए बैठा रहता। चुप रहने के
कारण में किसी से घुलमिल नहीं पाया था। तरुण जी मेरी आँख और कान थे। उनसे व
अन्य स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार आंदोलन के मुख्य किरदारों के बाबत
जल्द ही मैं काफी कुछ जान गया।
मसलन, बीके दुबे जी उर्फ बाबा इंडिया अगेंस्ट करप्शन, जमशेदपुर इकाई के संयोजक
थे। कुछ लोग उन्हें स्वयंभू संयोजक भी कहते। मगर उनका कहना था कि पलामू में
हुई प्रदेशस्तरीय बैठक में उन्हें स्थानीय इकाई का संयोजक राष्ट्रीय कोर कमेटी
के एक सदस्य ने नियुक्त किया था। पांडा जी इस प्रसंग पर कहते कि - 'संयोजक तो
मैं बनने वाला था, मगर विनोद सिंह ने दुबे जी का नाम आगे कर दिया।'
वे उनके पीठ पीछे दोनों पर पैसे का गोलमाल करने का भी वे आरोप लगाते। कोई
सांगठनिक ढाँचा न होने के कारण दुबे जी के संयोजकत्व पर कोई एतराज भी नहीं
करता। फिर आगे बढ़-चढ़कर वे इंतजाम सँभालते। उनके विरोध का मतलब था बोझ अपने सर
पर लेना। वे पुराने कांग्रेसी ठहरे-दाँवपेच में माहिर। लेकिन एक-डेढ़ दशक से वे
कांग्रेस छोड़ चुके थे या भगाए जा चुके थे। बकौल तरुण जी, 'नौ सौ चूहे खाकर अब
वे हज करने चले थे।' झूठे एक नंबर के। जैसा जो मिला उससे वैसा हाँक देते थे।
तरुण जी ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया था यह डींग मारते कि अखंड बिहार में वे
कांग्रेस के प्रदेश सचिव थे। तरुण जी के हैरत जताने पर संशोधन किया था कि युवा
कांग्रेस के। तरुण जी ने मुझे बताया कि उन्हें किसी ने बताया है कि वे
कांग्रेस के नगर अध्यक्ष रहे सुरेश झा के मात्र एक दरबारी थे। उसी समय की
कहानियाँ सुनाते हैं थोड़ी तब्दीली के साथ। सुरेश जी की जगह खुद को मुख्य
किरदार में फिट कर देते। गुस्सा तो दुबे जी की नाक पर ही रहता। किसी भी बात पर
कूदने-फाँदने लगते।
इसी तरह विनोद सिंह थे। एक मासिक पत्रिका निकालते थे - दो-तीन माह में। जब कोई
मुर्गा माने विज्ञापनदाता फँस जाता। वे अपनी पत्रिका में किसी की भी तारीफ कर
सकते थे, बशर्ते उचित कीमत मिले या मिलने की आस हो। उनकी खासियत यह थी कि वे
नेपथ्य में रखकर कठपुतिलयों की डोरी अपने हाथ में रखना चाहते थे। हालाँकि,
इसका कारण यह भी हो सकता है कि तमाम राजनेता उनके संभावित ग्राहक उर्फ
विज्ञापनदाता थे। यकीनी तौर पर वे सब भ्रष्टाचारी भी थे। अन्ना आंदोलन को वे
अपना निजी विरोध भी समझ ले सकते थे और उन्हें अपना जाति दुश्मन। जो उनके
पत्रकारिता के लिए निहायत ही हानिकारक सिद्ध होता। सो, वे दुबे जी को नेतृत्व
के लिए आगे बढ़ाते और उन्हीं के सहारे अपना मतलब साधते।
एक राजीव रंजन जी थे। रईसोंवाली उनकी गोराई उनके संभ्रांत (तरुण जी के
कथनानुसार - सफेदपोश) होने की सूचक थी। उनके चेहरे पर हमेशा रहस्यमय मुस्कान
खिली रहती। बकौल तरुण जी - कुटिल मुस्कान। मुझे भी उनकी मुस्कान थोड़ी जटिल
लगती। धरनास्थल पर लैपटॉप थामे वे कुछ न कुछ करते रहते। बाद में पता चला कि वे
इंडिया अगेंस्ट करप्शन, जमशेदपुर के नाम से कोई वेबसाइट चला रहे हैं। जिसे वे
डेली अपडेट करते हैं। जिसमें वे अपने और अपनों के ही अधिकतर फोटो डालते।
रोजी-रोटी के लिए समाज सेवा करते। तरुण जी को पता नहीं कहाँ से यह भनक लग गई
कि उनके एन.जी.ओ. ने पौधरोपण में भारी घपला किया है।
इंतजामिया कमेटी में करीब एक दर्जन युवा भी थे। उनमें फैशनेबल पगड़ीधारी सरदार
परमजीत सिंह और चश्माधारी शालीन रोहित त्रिपाठी विशेष उल्लेखनीय थे। परमजीत
सिंह नारे लगाने में माहिर था। 'भारऽऽत... माता की जयऽऽ और वंदेऽऽ मातरमऽऽ' का
जब वह उद्घोष करता तो खुद को सन्नी देओल से कम नहीं समझता। वह भी बजरिए मोबाइल
आंदोलन की पल-पल की खबर मय फोटो और वीडियो फेसबुक पर अपलोड करता रहता। जबकि
रोहित सबकी (तरुण जी उवाच - विशेषकर बाबा की।) तीमारदारी में लगे रहता। तरुण
जी ने उसका नाम 'बाबा नाम केवलम' रख दिया। वैसे लड़का देखने में बेहद मासूम और
अभिजात था। मगर तरुण जी कहते, 'देखन में छोटन लगैं, घाव करैं गंभीर।' एक और
युवक था सीतेश। शेयरों का कारोबार करने वाला सीतेश एक नंबर का फिकरेबाज और
चुहलबाज था। दुबे जी को पिनकाते रहना उसका खास शगल था। दुबे जी के नाक पर बैठे
गुस्से को जुबान तक वह पिन मारकर ले आता। आंदोलन के दौरान पानी की बोतलें
मंगाकर, बैनर के पैसे देकर उसने अपनी शाहखर्च की अपनी छवि बना ली थी। दुबे जी
के साथ चलने वाली उसकी नोक-झोंक बहुतों का मनोरंजन करती।
तरुण जी की राजेश्वर जी से अच्छी पटरी बैठती थी। वे कम्युनिस्ट थे, उनकी नजर
में कम-अनिष्ट (कारी)। राजेश्वर जी अंतर्विरोधों से भरे शख्स थे। पूर्व
पूँजीवादी सह एक्स नक्सली-टू इन वन। उनके अनुसार वे अपनी जवानी उत्तर बिहार के
नक्सल आंदोलन में गर्क कर चुके थे। पिता उनके सरकारी मुलाजिम थे - शायद किसी
बड़े ओहदे पर। सो, घर-बार से बेफ्रिक वे इन्कलाब लाने में जुटे रहे। बाद में
आंदोलन के साथ जब उनका घर भी बिखरने लगा तो अपने पिता के पुण्य-प्रताप से ऑटो
पार्ट्स की एक ठो छोटी-सी फैक्टरी डाल ली। मगर उनकी क्रांतिकारी चेतना
गाहे-बगाहे विद्रोह कर बैठती - पूँजीवादी, शोषणकारी हथकंडे अपनाने से। तो एक
दिन बैठ गई, उनकी फैक्टरी भी। पिता और पैसे भी नहीं रहे। अब, वे पूर्णतया
सर्वहारा थे। क्रांति के लिए पूरी तरह से तैयार, जिसकी ज्वाला उनके अंदर अब भी
धधक रही थी; इसलिए वे शामिल हो गए आंदोलन में। इस डर से कि इस बार उनसे जाती
तौर पर कोई ऐतिहासिक भूल न हो जाए। विद्रूपताओं से लबरेज इस शख्स के साथ तरुण
जी की अच्छी छनने लगी। इसका कारण शायद यह भी था कि वे खुद भी इंतिहा पसंद थे -
कम से कम विचारों के स्तर पर। मैं इसका फायदा उठाने से नहीं चूकता। जब भी वे
किसी के बायो-डाटा पर शक करते तो मैं राजेश्वर जी की क्रांति-कथा की हकीकत पर
भी सवाल खड़े कर देता। तरुण जी उनकी फटेहाली का हवाला देते। गोया, फटेहाली और
सत्यवादिता में कोई अंतःसंबंध हों।
अगर, राजेश्वर जी वामपंथ की उलझी ग्रंथि थे तो दूसरे ध्रुव पर थे दक्षिणपंथ की
जीती-जागती विडंबना-राम अवध तिवारी। 'लंबा टीका, मधुर वाणी... दगाबाजों की यही
निशानी' उन्हें देखकर तरुण जी की प्रतिक्रिया होती। वे एक सियासी पार्टी के
राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उनके इस परिचय से हर कोई चैंक जाता था। साधुओं की तरह
वे हमेशा गेरुआ वस्त्रधारण किए रहते। उनकी तरह ही लंबी दाढ़ी और चंदन-रोरी के
टीका से उनका मुखमंडल शोभामान रहता। वे प्रखर वक्ता थे। इतने प्रखर कि अखर
जाता, सुनने वालों और उन्हें माइक देने वालों को भी। पेशे से पुरोहित थे।
जजमनिका कर आजीविका चलाते। मिजाज से सियासी। मतलब कुटिल या तिकड़मी नहीं। बस
छोटी-सी हसरत थी कि राजनीति में उनकी भी एक पहचान हो, लोग उन्हें जानें, एक
रुतबा हो और ढेर सारे चमचे हो। अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत उन्होंने बजरंग
दल से की थी। राम मंदिर आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। सियासी
दाँवपेच न जानने के कारण स्वतः भगवा राजनीति से किनारे होते गए। उनके शब्दों
में, 'चमचापरस्त आज की राजनीति की वैतरणी में बगैर किसी का पैर पकड़े कोई पार
लग सकता है? मैं ठहरा जन्मना पुरोहित दूसरे मेरे पाँव छूते हैं... मैं भला
किसी के... पैर नहीं छूते थे तो वे सियासत में अछूते हो गए। खैर, उन्होंने हार
नहीं मानी। उन्होंने राम भक्त सेना नामक अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली और उसके
स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए। हालाँकि, वे अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन
सकते थे, क्योंकि वे जिस परंपरा से आते थे वहाँ कुछ अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष
पहले से मौजूद थे। मगर पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने बख्श दिया दुनिया को।
अपने लेटर पैड पर पार्टी के केंद्रीय कार्यालय पता वे उस होटल का देते थे
जिसमें वे कभी अपने दिल्ली प्रवास के दौरान ठहरे थे। दुनिया में अपनी छाप
छोड़ने की बेताबी में उन्होंने अपने लेटरपैड पर अपनी तस्वीर भी छपा रखी थी। जब
भी उन्हें उन जैसा पहचान के संकट से गुजर रहा कोई बेचारा मिल जाता तो उसी
लेटरपैड पर उसे उसकी हैसियत के मुताबिक अपनी पार्टी में कोई पद देते। इसके एवज
में पार्टी के लिए उससे चंदा ले लेते। गाहे-बगाहे किसी मुद्दे पर शहर बंद
कराने की घोषणा अखबारों में विज्ञप्ति भेजकर कर देते। यह बात और है कि उनके
आह्वान से बेखबर शहर अपने ढर्रे पर चलता रहता। बजरंग दल से नाता तो वे तोड़
चुके थे पर दिल से वे अभी भी बजरंगी थे। अब भी वेलेंटाइन डे के विरुद्ध जुबली
पार्क में उतर जाते। कार्यकर्ताविहीन पार्टी के अध्यक्ष होने के कारण ऐसे
मौकों पर अपने बीवी-बच्चों के साथ ही उन्हें अपसंस्कृति का विरोध करना पड़ता।
श्रेष्ठता ग्रंथि के मारे अशोक पांडा जी दुबे जी के ध्रुव विरोधी थे। स्वभाव
से ही व्यवस्था विरोधी तरुण जी उनसे भी खूब हिलमिल गए थे। उनकी मानसिक बनावट
भी तरुण जी सरीखी ही थी। फर्क सिर्फ यह था कि उनमें अमल की भी बदआदत थी। जबकि
तरुण जी गाल बजाकर ही काम चला लेते थे। पांडा जी पहले बाबा रामदेव से जुड़े थे।
फिलहाल उनके पंतजलि को तिलांजलि देकर अन्ना आंदोलन को धार देने आ गए थे। शक्ल
ऐसी कि लगता पैदा ही नाक भौं सिकोड़े हुए हों। पैदा करने वालों को उन्होंने
निराश भी नहीं किया। हर बात में वे नाक भौं सिकोड़ लेते। एक बार भाषण देते हुए
मुसीबतजदा और भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों से वे अपना फोन नंबर नोट करने का आग्रह
कर रहे थे, ताकि जरूरत पड़ने पर उनसे संपर्क किया जा सके। पहले तो मुझे खूब
हँसी आई, उनके आत्मविश्वास पर। पर एकाध को उनका नंबर नोट करता देख मैं संशय
में पड़ सिर्फ मुस्कराकर रह गया। उनकी ये हरकतें दुबे जी को कुपित कर देतीं।
राष्ट्र भक्त बद्रीनाथ भारतीय जी को इस बात की खास फ्रिक रहती कि राष्ट्र ध्वज
की शान में कोई गुस्ताखी न हो। भारतीय जी विशुद्ध संघी थे - प्रतीक-प्रेमी।
राष्ट्र चाहे गर्त में चला जाए - राष्ट्रीय प्रतीक की प्रतिष्ठा पर आँच न आए
के फलसफे पर चलने को प्रशिक्षित। कोर्ट में टाइपिस्ट का काम कर रोजी-रोटी
चलाते। बचा वक्त राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। पहले राष्ट्र भाषा हिंदी के
लिए आंदोलन टाइपिस्ट एसोसिएशन के बैनर तले चलाते रहे थे। फिर उनका ध्यान
राष्ट्र ध्वज तिरंगा के अपमान की ओर गया। जिसके नाम पर किसी दुष्ट ने गुटखा
बनाकर बेचना शुरू कर दिया था। इसके खिलाफ उन्होंने मुहिम छेड़ रखी थी।
हाकिम-हुक्कामों के साथ खतो-किताबत, अखबारों में विज्ञप्तियाँ भेजने, ज्ञापन
सौंपने के अलावा, 15 अगस्त और 26 जनवरी को गांधी जी का वेष बनाए तिरंगा
लहराते। मैं कहता, 'वैसे दिल के साफ हैं।' तो तरुण जी जोड़ने से न चूकते,
'दिमाग के भी।'
इसी तरह के एक दिलचस्प प्राणी थे - बसीर भाई। पेंटर सह आर.टी.आई. एक्टिविस्ट।
कहाँ तो लोग डरते हैं कि पुलिस कहीं उनके पीछे न पड़ जाए और कहाँ बसीर भाई
पुलिस के पीछे ही नहा-धोकर पड़े रहते। गुरबत से गुजर रहे बसीर भाई का तखल्लुस
भाई लोगों ने बवासीर रख छोड़ा था। किसी का भी वे बैठना मुश्किल कर देते - पुलिस
अफसरों को लोहे के चने चबवा देने वाले, तबादला करा देने वाले अपने एकरस
किस्सों से। उन्होंने पुलिस अफसरों के खिलाफ आर.टी.आई. के कई आवेदन दे रखे थे।
तरुण जी ने मुझे बताया कि विनोद जी ने उन्हें बताया कि बसीर भाई किसी ट्रक के
किशोरवय खलासी के साथ गैर-कुदरती हरकत करते हुए पकड़े गए थे। उन्हें उम्मीद थी
कि कला चेतना से लैस होने के कारण इस मामले में उन्हें रियायत मिलेगी। मगर,
जाहिल पुलिस अफसरों ने उनकी एक न सुनी। तभी से वे पुलिस के दुश्मन बन बैठे।
मुझे इस अफवाह के सच होने पर घनघोर शक था। पर, हम लोगों के आने से पहले से यह
फैली हुई थी। धरनास्थल की शोभा बनीं नारे लिखी तख्तियाँ, उनके हाथ के हुनर का
नमूना थीं।
ऐसा नहीं था कि भ्रष्टाचार से केवल पुरुष ही लड़ रहे थे। कई महिलाएँ भी मैदान
में उतर आई थीं। इनमें से एक विशेष उल्लेखनीय थी - माया देवी। इनकी माया
निराली थी। ये भी बाबा रामदेव के संगठन से जुड़ी थी। बाबा तो अन्ना आंदोलन को
समर्थन करने न करने को लेकर पसोपेश में थे, लेकिन ये पूरी तरह से स्पष्ट थी कि
जनलोकपाल आना चाहिए। इसलिए घर-परिवार से फारिग होकर आ जाती थी धरने में शामिल
होने। पांडा जी इनका विशेष ख्याल रखते थे। रोजाना इन्हें माइक थमा देते।
दिक्कत यह थी कि माया जी रोज एक ही भाषण देती। भारतीय संस्कृति पर। रोजमर्रा
वाले श्रोता पक जाते। नए श्रोताओं में जोश भर जाता। महिला कालेज की एक छात्रा
नेता अनीता सिंह भी थी। जिसने अपने कालेज की प्रिंसिपल के नाक में दम कर रखा
था। प्रिंसिपल भी नाक की लड़ाई में इनकी पढ़ाई छुड़ा चुकी थीं। दुबे जी की पड़ोसन
थी वह। जिसके विषय में दुबे जी के खयालात काफी बुरे थे। उनकी शिकायत थी कि
इसने और इसके परिवार ने पड़ोसियों का जीना हराम कर रखा है। उससे संबंद्ध कई
किस्से चटखारे ले-लेकर सुने-सुनाए जाते थे। छात्रों और छात्र नेताओं से घिरे
रहने के कारण इन्हें सच भी मान लिया जाता। और भी कुछ महिलाएँ थीं। मेरी तरह
कुछ बेनाम, बेचेहरे, नाकाबिले-जिक्र लोग भी थे जो चुपचाप रोजाना आते और धरने
में बैठते।
तरुण जी सभी की बखिया उधेड़ने में लगे रहते। सबको स्वार्थी सिद्ध करते। मानवीय
प्रकृति के लिए खुराक की तरह है चुगली-चट्टा। मैं भी इनका जायका लेता। अति
होने पर कभी-कभी बदहजमी होने लगती। ऐसे में मेरी तरुण जी से मौखिक मुठभेड़ हो
जाती। मैं एक बुजुर्ग समाजवादी नेता ताराचंद सिन्हा, सामाजिक कार्यकर्ता
पन्नालाल शर्मा, प्रोफेसरान और बाकी गुमनाम आंदोलनकारियों का नाम
गिनाता-'बताइए इनका क्या स्वार्थ हैं? अरे, ताराचंद जी का जज़्बा तो देखिए।
80-85 साल की उम्र में भी आंदोलन के लिए कमर कसे हुए हैं। आखिर किसके लिए लड़
रहे हैं ये?'
'अखबार में फोटो छपवाने के लिए।'
'फालतू बात है... बहस होने लगती। मैं कहता, 'मान लिया कि कई लोग गलत भी हैं तो
इससे क्या नुकसान है? अब लोग तो लोकपाल और लोकायुक्त बनने से रहे। कम से कम
वैसे ईमानदार लोगों से ये अच्छे तो हैं जो घरों में बैठे हैं।' वे झूठे-सच्चे
तर्क देने लगते। ऐसे मौकों पर जिरह हमारी नई नवेली मित्रता में गिरह न डाल दे
यह सोचकर मैं ही चुप लगा जाता।
ऐसा ही नहीं था कि धरनास्थल पर केवल नीरस भाषण होता था। शाम को गाना-बजाना,
शेरे-शायरी भी होती थी। कुछ अति उत्साही तो डांस भी करने लगते। स्थाई
आंदोलनकारियों के अलावा कुछ दिहाड़ी किस्म के आंदोलनकारी भी थे, जो राह चलते
रुककर अपनी सहभागिता निभाते। इनमें कुछ तो चुपचाप दानपेटी में रुपये डाल जाते।
कोई बिना कुछ कहे-सुने कुछ देर के लिए टेंट के नीचे बैठ जाता, गोया मंदिर या
मस्जिद में बैठा हो। कुछ राह चलते करतबबाज अपना जौहर दिखाने के लिए रुक जाते।
कोई उछल-कूदकर कलाबाजी दिखा जाता तो कोई कविता पेल जाता, तो कोई अपने गाने के
हुनर का मुजायरा करता। कुछ लोग तिरंगे को मुख्तलिफ अंदाजों में लहराया कर अपनी
वतनपरस्ती का इजहार करते। तो कुछ लोग चंद मिनटों के लिए गलाफाड़ नारेबाजी करके।
मजमा को बाँधे रखने के लिए यह निहायत जरूरी भी था। कुछ लोगों की आपत्तियों के
बावजूद ऐसे कलाकारों को खासा तवज्जो दी जाती।
धीरे-धीरे आंदोलन के इतिहास की कहानी भी खुलने लगी। राजेश्वर जी ने खुलासा
किया कि आंदोलन तो मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट एक्स.एल.आई.आई. के कुछ प्रोफेसरों,
एक सामाजिक चेतना से लैस जबरन सेवानिवृत्त कर दिए गए सरकारी अधिकारी सी.के.
सिंह, एक स्वाभाविक रूप से सेवानिवृत्त हुए जज, एक पुराने बुजुर्ग सामाजिक
कार्यकर्ता पन्नालाल शर्मा इत्यादि ने मिलकर शुरू किया था। सिंह साहब के विषय
में दो कहानियाँ प्रचलित थीं। दुबे जी के संस्करण के अनुसार भ्रष्ट होने के
कारण उन्हें असमय सेवानिवृत्ति दे दी गई, जबकि राजेश्वर जी के संस्करण के
अनुसार मुख्यमंत्री की करीबी एक कंपनी की मुखालफत करने का उन्हें खमियाजा
भुगतना पड़ा। एक तीसरा संस्करण भी था जिसके मुताबिक सार्वजनिक रूप से सक्रिय
होने के कारण उन्हें हटाया गया। अफसर साहब स्वयं भी खुद को जे.पी. आंदोलन के
सिपाही बताते। अब भी जब भी मौका मिलता वे आंदोलन में शामिल होते। फिलवक्त वे
मशहूर बाबा रविशंकर के समूह से जुड़कर वे लोगों को जीने का तरीका बता रहे थे।
बकौल तरुण जी, 'कैरियर की संभावना दोनों जगहों पर वे तलाश रहे हैं।' लेकिन
आंदोलन से उनकी सहानुभूति थी। स्वाभाविक रूप से सेवानिवृत्त हुए जज साहब अब भी
आंदोलन से जुड़े थे। वे बहुत कम बोलते थे। धैर्यपूर्वक किसी किस्म का भी बकवास
सुनने का उनका अभ्यास अब भी बरकरार था।
धरनास्थल पर रोजाना एक-दो झड़प हो जातीं। खासकर भाषण देने और अखबार में नाम को
लेकर। दुबे जी प्रेस-विज्ञप्ति खुद लिखते थे। जिसे अपनी सदारत के खिलाफ पाते,
उस शख्स का नाम वे नहीं देते। अपने नेतृत्व में आंदोलन होने की बात सबसे पहले
लिखते। इस पर पांडा जी उनसे कई मर्तबा उलझ जाते। धरने में दो दिनों से विहिप
के भी आधा दर्जन लोग आ रहे थे। कुछ दिनों तो भाषण देने के अलावा कोई और
सक्रियता उन्होंने नहीं दिखाई। पर धीरे-धीरे पांडा के कंधे के बंदूक रख
उन्होंने गोली चलानी शुरू की। धरने के तीसरे दिन शाम को विहिप के शंकर जी को
प्रेस-विज्ञप्ति लिखने का निर्देश पांडाजी ने दे दिया। वे लिखने भी लगे दुबे
जी गौर से देख रहे थे किस-किस का नाम दिया जा रहा है। शंकर जी इसे ताड़ गए। वे
दुबे जी से नाम पूछने लगे, खिसियाए हुए दुबे जी खौलकर रह गए। लेकिन कुछ बोले
नहीं, वे चाहते थे कि वे गलती करें और वे उन्होंने कल को घेर लें। दो-चार
पुराने लोगों का नाम दूसरे दिन अखबारों में नहीं आया। इसे दुबे जी ने मुद्दा
बना दिया। वे आंदोलन को हाईजैक करने का रंग इसे देने लगे। राजेश्वर जी, विनोद
सिंह, राजीव जी, रोहित, परमजीत पुराने आंदोलनकारियों ने भी इसे गलत माना।
दूसरे दिन प्रेस-विज्ञप्ति तैयार करने की बारी आई तो परमजीत ने बेबाकी से कह
दिया कि दुबे जी ही लिखेंगे। पांडा जी ने इस पर लाल-पीले भी हुए कि सभी कुछ
दुबे जी ही करेंगे तो बाकी क्या करेंगे? रोहित ने ध्यानाकर्षण किया कि कल की
रिलीज में कई अहम नाम छूट गए थे। सिर्फ विहिप के लोगों का नाम ही प्रमुखता से
दिए गए थे। पांडा जी आपे से बाहर हो गए, 'दुबे जी रिलीज में यह क्यों लिखते
हैं कि उनके नेतृत्व में धरना दिया गया...' विनोद सिंह ने मोर्चा सँभाला, 'तो
किसके नेतृत्व में हो रहा है...? जब पैसों की जरूरत पड़ती है तब तो कोई आगे
नहीं आता। दुबे जी ही अपने जेब से देते हैं।'
'देते है क्या मतलब, चंदा आने पर फिर ले भी तो लेते हैं।'
'इतना भी कोई क्यों नहीं करता।'
शंकर जी ने सभी को शांत कराते हुए कूटनैतिक-सी दलील दी कि दुबे जी पर ही सारा
बोझ डालना कहाँ तक उचित होगा? मगर दुबे जी एंड कंपनी के हमलावर रुख के आगे वे
टिक नहीं पाए। आंदोलन का पी.आर. फिर से दुबे जी के कब्जे में आ गया।
दूसरे दिन पंडाल के नीचे कई लोग बैठे थे। राम अवध जी का भाषण चल रहा था। उनके
लंबे भाषण से दुबे जी का पारा चढ़ने लगा। इससे बेखबर वे दहाड़ रहे थे। सीतेश ने
नाक-भौं सिकोड़ कर धीरे से कुछ कहा। मैं जानता था वह कुछ भी अनर्गल टिप्पणी कर
देगा। मैं झट से दूसरी ओर देखने लगा। सीतेश ने राम अवध जी को टोका-बस बहुत हो
गया।
राम अवध जी अपनी रौ में बोले जा रहे थे। सीतेश ने दुबे जी की ओ देखा - एक खास
ढंग से चेहरा बनाया और कहा, अजीब आदमी है। दुबे जी का सब्र जवाब दे गया।
उन्होंने राम अवध जी को टोकते हुए कहा, 'बस भी कीजिए... बहुत हुआ... और भी
वक्ता हैं।' सीतेश अपनी सफलता पर मुँह दबाकर हँसने लगा। बाकी लोग भी
मुस्कुराने लगे। तभी धरनास्थल के बाहर एक टाटा सफारी आकर रुकी। उस पर लगे झंडे
पर एकबारगी सभी का ध्यान चला गया। कुम्हलाया-सा वह भगवा पार्टी का झंडा था। इस
बीच गाड़ी से एक सफेद कुर्ता-पायजामा पहने अधगंजा-सा व्यक्ति निकला, उसके पीछे
चार चमचेनुमा लोग उतरे। वह गोलचक्कर की ओर बढ़ा आ रहा था। मुझे उसकी शक्ल
जानी-पहचानी लगी। मैं अपने दिमाग पर जोर लगाता इससे पहले तरुण जी मेरे कान में
फुसफुसाए। 'प्रमोद सिंह है, भगवा पार्टी का पूर्व जिलाध्यक्ष।' मुझे याद आया
अखबारों में अक्सर उसकी फोटो दिखती है। सबको हाथ जोड़े हुए वह आया और धरनास्थल
पर बैठ गया। सुबोध ठाकुर से उसने हाथ भी मिलाया। प्रमोद सिंह धरने में बैठे
रहे, किसी ने उन्हें घास नहीं डाली। बीच में एक चेले ने उनके लिए माइक झटक
लिया। जोश-खरोश के साथ उन्होंने भाषण भी दिया। इस बीच कुछ प्रेस फोटोग्राफर भी
आ गए। फोटो सेशन भी हुआ।
दूसरे दिन अखबारों में प्रमोद सिंह की फोटो प्रमुखता से शाया हुईं। धरनास्थल
पर इसे लेकर खलबलाहट थी। दुबे जी सबसे ज्यादा उखड़े हुए थे। उनसे जब्त नहीं हो
रहा था। 'आ जाते है फोटो खिंचाने, आगे सामने बैठ जाते है। भ्रष्टाचार से लड़ने
चले हैं पहले अपनी पार्टी से भ्रष्टाचार तो मिटाएँ...'
सीतेश ने आग में घी डाला।
'फोटोग्राफरों से सेटिंग थी, देखा नहीं फोटो लेते वक्त कैसे उन्हें इशारे कर
रहा था।'
'अरे... टेंपो चलाते थे... मुख्यमंत्री के पीछे घूम-घूमकर पैसा कमा लिया।
पच्चीस लाख से कम का घर नहीं बनवाया है। कहाँ से आया इतना पैसा?'
ये विनोद सिंह थे। भगवा पार्टी से जुड़े आर.टी.आई. कार्यकर्ता सुबोध ठाकुर पर
ही परोक्ष रूप से उन्हें धरने में बुलाने का आरोप विनोद सिंह ने जड़ दिया।
सुबोध जी ने इसका प्रतिकार किया। उनकी ओर से शरद जी ने सभी को समझाया कि यह
पश्चिम विधानसभा से पार्टी का टिकट पाने की जुगत में है। पूर्व विधायक गंगा
राय का टिकट कटवाकर। सुबोध जी गंगा राय के गुट के है, उनकी ही सरपरस्ती में
काम करते हैं। उनके लिए भी आर.टी.आई. फाइल करते हैं। प्रमोद सिंह के साथ
उठना-बैठना सुबोध जी के लिए इसलिए हानिकारक है। लानत-मलामत के बाद तय हुआ कि
कोई भी उनसे बात नहीं करेगा। न कोई तवज्जो देगा। पांडा जी ने कहा कि वे तो
अपने भाषण में भगवा पार्टी को आज निशाना बनाएँगे। सभी को उनकी तजवीज पसंद आई।
फैसला हुआ कि वे आए तो सभी भगवा पार्टी के भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हुए
भाषण देंगे। प्रमोद जी दूसरे दिन आए तो सत्ताधारी पार्टी से ज्यादा भगवा
पार्टी को वक्ताओं ने गरियाया। उनसे किसी ने बात भी नहीं की। न उन्हें माइक
लेने दिया गया। प्रमोद सिंह भी समझ गए कि वे यहाँ अवांछित है। वे बीच में उठकर
चल दिए। सबने राहत की साँस ली।
दूसरे दिन वे धरने में नहीं आए, न ही विहिप की टीम आईं। इसका राज खोला बसीर
भाई ने। उन्होंने बताया कि मानगो चैक पर प्रमोद सिंह और विहिप के लोग अन्ना का
बैनर पोस्टर लगाकर धरने पर बैठ गए हैं। वहाँ भीड़ भी ठीकठाक है। सुबोध जी ने इस
खबर का विश्लेषण करते हुए बताया कि प्रमोद जी की चुनाव की तैयारी का अंग है यह
धरना। इसी बहाने वे इलाके में खुद को हाईलाइट करना चाहते हैं। पांडा जी पर
विनोद जी ने तंज कसा, 'आप नहीं गए?' वे बिफर गए। 'क्या मतलब है आपका?'
राजेश्वर जी ने बताया कि कई लोगों को प्रमोद सिंह और शंकर जी ने फोन कर के
उनके अनशन में शामिल होने का न्यौता दिया था। परमजीत और रोहित ने भी इसकी
पुष्टि की। शरद जी ने कहा कि - 'पॉलिटिशियन है भाई... तोड़फोड़ तो करेंगे ही।'
बाद में पता चला कि पांडा जी भी गए थे उनके धरने में। मगर वहाँ जो बैनर लगाया
गया था उसमें उनका नाम और फोन नंबर नहीं था। जबकि उनसे मोटा चंदा लिया गया था।
अपनी अनदेखी से नाराज होकर वे लौट आए।
लेकिन असली झटका को दूसरे दिन अखबारों में आईं खबरों से लगा। जिसमें प्रमोद
सिंह के भूख हड़ताल पर बैठने की खबर छपी थी। कहाँ तो वे खुद को पुराने और असली
प्रतिनिधि होने का भ्रम और गर्व पाले बैठे थे, मगर अब तक वे धरने में ही बैठे
थे जबकि प्रमोद सिंह ने अनशन कर बढ़त हासिल कर ली। अखबारों में प्रमोद सिंह की
अनशन को अच्छा कवरेज मिला। सीतेश ने दुबे जी को उकसाने के इरादे से कहा, 'केवल
धरने से क्या होगा? हममें से भी किसी को भूख हड़ताल पर बैठना होगा।'
दुबे जी ने कहा।
'हाँ तो बैठा जाए।'
लंबी चर्चा के बाद 11 लोग भूख हड़ताल पर बैठने को प्रस्तुत हुए। दुबे जी, राम
अवध जी, राजेश्वर जी, रोहित, परमजीत इत्यादि प्रमुख लोग अनशन पर नहीं बैठे।
किसी ने सेहत तो किसी ने ड्यूटी का बहाना बनाया। दुबे जी को विनोद जी और रोहित
ने अपनी ऊर्जा बचाकर रखने के लिए मना लिया, ताकि वे आंदोलन के लिए भागदौड़ कर
सकें। वे भी इनके जोर देने पर मान गए। तरुण जी को भी ऑफर दिया गया। उन्होंने
गैस की आड़ ली। मुझे किसी ने पूछा ही नहीं।
अनशन में अनीता सिंह, छात्र नेता संजय गोस्वामी, राम अवध जी, बद्रीनाथ भारतीय,
इत्यादि बैठे। माला पहनाकर इन्हें बैठाया गया था। अखबारों में फोटो छपे। लोकल
चैनलों ने अनशनकारियों की बाइटें लीं। जिला प्रशासन भी सतर्क हो गया। रोज
अनशनकारियों की मेडिकल जाँच होने लगी। तरुण जी का पक्का विश्वास था कि
अनशनकारी छुप-छुपकर खाना खाते हैं। मैं कहता तब तो आपको भी अनशन पर बैठ जाना
चाहिए था। वे कहते, 'ऐसे पाखंड से वे दूर ही रहना चाहते हैं।' वे तर्क देते,
'देख नहीं रहे है किसी भी अनशनकारी के चेहरे की कांति कम नहीं हो रही है।'
दूसरे ही दिन उन्हें जवाब मिल गया - बद्रीनाथ भारतीय की हालत पतली हो गई।
उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। अनशन की खबरों के बीच उनके बाबत भी
अखबारों और लोकल चैनलों में खबरें आईं।
भूख हड़ताल पर बैठने वाले सभी को डेढ़-डेढ़ हजार का लेदर बैग देने का निर्णय लिया
गया। बाकी किसी को अनशन से कोई खास मतलब नहीं था। प्रस्ताव पास हो गया। पंद्रह
बैग खरीदे गए। दुबे जी, विनोद, रोहित और राजीव जी ने भी बैग लिए। जबकि वे भूख
हड़ताल पर नहीं बैठे थे। कुछ ओर लोगों को यह बात नागवार गुजरी। पांडा जी इसके
विरोध में उतर आए। उन्हें भी बैग का ऑफर दिया गया। वे और भड़क गए कि उन्हें
रिश्वत देने की कोशिश हो रही है। दुबे जी और विनोद सिंह ने दलील दी कि आंदोलन
से जुड़े कागजात, पेपर कटिंग वगैरह रखने के लिए उन्हें बैग चाहिए। बैग के बहाने
ही पांडा जी टीम दुबे पर आरोप लगाने लगे फंड में हेराफेरी का। उन्होंने दुबे
जी, विनोद सिंह, राजीव जी पर आंदोलन का पैसा दबाने का आरोप लगाया। उनका कहना
था कि मेडिकल एसोसिएशन, एक्स.एल.आई.आई., मेडिकल कालेज के छात्र, कुछ कॉलेजों
के प्रोफेसर समय-समय पर मोटा चंदा आंदोलन के लिए देते आए हैं। ये बेचारे
निस्वार्थ भाव से बिना किसी लालच के आंदोलन के नाम पर स्वेच्छा से इमदाद भेजते
रहे, उससे कुछ लोग मौज उड़ाते रहे। दानपात्र में भी जो रकम मिली, उसका भी कोई
हिसाब-किताब नहीं है। अपने-अपने कारणों से दुबे जी से खुन्नस खाए बसीर भाई,
शरद जी, इत्यादि ने पांडा के सुर में सुर मिलाया। बद्रीनाथ जी और सुबोध जी को
भी दुबे जी की खुद को हाईलाइट करने की कोशिशें नागवार लगती थीं। टोपी और टीके
से सुशोभित दुबे जी जब अपने भोजपुरी टोन में लोकल चैनलों के कैमरों के आगे
वोकल होते तो कइयों के सीने पर साँप लोट जाता। उस समय भुनभुनाकर हर जाने वाले
ये लोग आर्थिक मामले में उन्हें घेर लेना चाहते थे।
छुबे जी भी तैश में आ गए। उन्होंने सब छोड़-छोड़कर घर बैठ जाने की धमकी दी। मगर
विनोद जी, राजीव जी, रोहित वगैरह उनके पक्ष में उतर आए। दुबे जी ने कहा कि वे
पाई-पाई का हिसाब देंगे। उन्होंने रोहित को हिसाब बनाने का निर्देश दिया। दुबे
जी और पांडा जी के बीच तलवारें खींच गईं। दो दिन चंदाखोरी पर जोरदार चर्चा
होती रही।
इस झगड़े ने सबका ध्यान आंदोलन के आर्थिक पक्ष की ओर मोड़ दिया। मुझे याद आया,
धरनास्थल पर तीसरे दिन हमें भी स्वेच्छा से आंदोलन के लिए कुछ आर्थिक सहयोग
करने के लिए कहा गया था। मैंने दो सौ रुपये दिए भी थे। अधिकतर लोग माहवार दो
सौ रुपये चंदा देते थे, आंदोलन के खर्चे के लिए। छात्रों को इसमें छूट दी जाती
थी। तगादा रोहित करता। खजांची युवा बिग्रेड का दिलीप मंडल था। एक निजी कंपनी
में वह ठीक-ठाक नौकरी करता था। कम बोलने वाला दिलीप सीदा-सादा और ईमानदार था।
चंदा देने में खुद भी आगे रहता। मगर, उसे आय (बकौल तरुण जी - वही जो बताया
जाता था।) का ही पता रहता था व्यय का नहीं। शहर के प्रसिद्ध टेंट हाउस के
मालिक ने टेंट मुफ्त में उपलब्ध कराया था। दो-तीन हजार तक खर्चे के लिए भावेश
मेहता थे। जो अपनी जेब से स्वेच्छा से खर्चे करते थे। एक हजार अन्ना टोपी
बनवाकर उन्होंने बाँटी थी। इसके अलावा चाय, पानी के खर्चें के लिए धरनास्थल के
सामने एक-एक दान पात्र रख दिया जाता। जसमें लोग कुछ न कुछ डाल देते। रात को
दानपेटी खोली जाती। तब तक केवल दुबे जी, राजीव जी, विनोद सिंह और पांडा जी रह
जाते थे। पहले दबी जुबान में पांडा जी पैसे के हेरफेर का आरोप इन तीनों पर
लगाते थे। इस बार वे ऐलानिया आरोप लगा रहे थे। उनकी बातों का अधिकतर लोग यकीन
भी कर रहे थे। क्योंकि माली रूप से वे मजबूत थे। उनका बिल्डिंग मैटेरियल का
कारोबार था। आंदोलन के लिए मोटा चंदा देते थे। पैसे के हेरफेर के मुद्दे का
असर भावेश जी एवं अन्य लोगों पर भी पड़ा, वे पैसे निकालने में टालमटोल करने
लगे। किचकिच होने लगी तो दिलीप ने मसरूफियत का बहाना बनाकर खाता-बही लौटा
दिया। दुबे जी, और विनोद जी ने रोहित को कैशियर बनवा दिया। रोहित परीक्षा सर
पर होने का बहाना कर हिसाब-किताब देने में आनाकानी करने लगा।
सामाजिक के साथ अपने घरेलू दायित्व भी कई लोग धरनास्थल से ही निपटाने में लगे
हुए थे। इससे जुड़ी कई किस्म की कहानियाँ फिजा में तैर रही थीं। जरा भी कान
देने पर वे सुनाई देने लगतीं। जैसे दुबे जी ने दो-तीन नौजवानों को डेढ़ लाख
लगाकर बी.एस.एन.एल. में ठेका लेने का प्रलोभन दिया है। जहाँ बतौर कांग्रेसी
उन्होंने अपना रजिस्ट्रेशन कराया था। परमजीत के एक मित्र के घर-जायदाद का
मामला सुलझा देने के एवज में उन्होंने पाँच हजार ऐंठ लिए हैं। रोहित ने सीतेश
से पचास हजार का कर्ज माँगा था तो उसने किसी महाजन का पता उसे बताकर अपना पिंड
छुड़ाया। राजेश्वर जी ने भी भावेश जी से दस हजार बतौर कर्ज माँगा था। उनसे और
बसीर भाई से दो दिन बातचीत करने का मतलब ही तीसरे दिन आपसे सौ-दो सौ रुपये
माँगेंगे, जिसे देने वाले भी अंधेर खाते में गया समझकर ही देते। तरुण जी ने
स्वयं दो सौ राजेश्वर जी को देने का दावा किया।
दिल्ली में अन्ना का अनशन पाँचवे रोज में प्रवेश कर गया था। पूरे मुल्क में
उनका समर्थन बढ़ता जा रहा था। लौह नगरी में भी अलग-अलग जगहों पर धरना-प्रदर्शन
हो रहे थे। अन्ना आंदोलन चहुँओर छाया हुआ था। करनडीह में कालेज के छात्रों ने
एक शाम मशाल जुलूस निकाला। जिसमें अखबारों में अक्सर दिखाई देने वाले कुछ समाज
सेवी भी शामिल हुए। गोविंदपुर में भोजपुरी मंच के कर्ताधर्ताओं ने लिट्टी चौक
का नाम अन्ना चौक रख दिया। मुंबई में बिहारियों की पिटाई के खिलाफ भाभा मोटर्स
के महाराष्ट्रीयन मूल के प्लांट हेड के घर में, महाराष्ट्र मंडल में तोड़फोड़
करने वाले भोजपुरी मंच के कार्यकर्ताओं के मन में एक पल के लिए भी अन्ना हजारे
के मराठी मानुष होने का ख्याल नहीं आया। भ्रष्टाचार विरोधी राष्ट्रीय भावना
इतनी प्रबल थी कि एक महाराष्ट्रीयन के लिए भोजपुरीवासियों के प्रिय व्यंजन को
कुर्बान कर दिया गया। सार्वजनिक जीवन में नई-नई दिलचस्पी लेने वाले शहर के
नामी उद्योगपति एम. डी. अग्रवाल ने भी अन्ना के समर्थन में एक विशाल रैली
निकाली। जिसमें शहर के कई नामी-गिरामी लोग शामिल हुए। मीडिया ने रैली को
शानदार कवरेज दिया। धरनास्थल पर इस जुलूस की किसी ने भूलवश तारीफ कर दी। फिर
क्या था दुबे जी बमक गए। वे और विनोद जी अग्रवाल को शहर के चोटी के चोट्टों
में से एक साबित करने लग गए। उसके काले कारनामों की फेहरिस्त गिनाई जाने लगी।
बताया गया कि ये सारी कवायद राज्य सभा में जाने के लिए हैं। विनोद जी ने बड़े
दावे से कहा कि उसने कई नेताओं के काले धन का निवेश अपने कारोबार में किया हुआ
है।
इस मसले पर घर लौटते वक्त हमारी चर्चा होने लगी। तरुण जी मजाक में कहने लगे कि
- 'सब अन्ना का नाम भुनाने में लग गए हैं। किसी को जनलोकपाल से मतलब नहीं है।
अब देखिएगा... अन्ना के नाम पर मोमबत्ती, पटाखे, मसाले और क्या-क्या बाजार में
आ जाते हैं। अन्ना की भी ब्रांडिंग शुरू हो गई हैं... सच्चाई और ईमानदारी का
दूसरा नाम अन्ना साबुन!' मैं भी हँसे भी नहीं रह सका। मैंने जोड़ा,
'जो मैल को भ्रष्टाचार की तरह जड़ से खत्म कर देगा।'
उन्होंने जोड़ा,
'जो जनलोकपाल से करते हैं प्यार, वे अन्ना अगरबत्ती से कैसे करें इंकार!'
'सदाचार का सुगंध फैलाएँ... अन्ना छाप अगरबत्ती जलाएँ!'
'भ्रष्टाचार जैसा काला घना अँधेरा भी दूर करें... अन्ना छाप मोमबत्ती!'
'दुबे जी, पांडा जी और एम.डी. अग्रवाल समेत हर कोई अन्ना ब्रांड की फ्रैंचाइजी
लेने में लगा हुआ हैं।'
हँसी-ठहाकों के बीच हमारी कल्पना कुलाँचे भरने लगीं।
अनशन में बैठे अन्ना की तबीयत बिगड़ने लगी। देश भर में बढ़ रहे आंदोलन के समर्थन
को देखते हुए पक्ष और विपक्ष दबाव में आ गए। केंद्र सरकार को भी झुकना पड़ा।
संसद में जनलोकपाल लाने का आश्वासन दिया गया। जिसके बाद अन्ना हजारे ने अनशन
तोड़ने का ऐलान किया। यहाँ भी अनशन तोड़ने का फैसला हुआ। दूसरे दिन एस.डी.एम. ने
सभी अनशकारियों को प्रेस-फोटोग्राफरों की प्रेरणदायक मौजूदगी में जूस पिलाकर
अनशन तुड़वाया।
इसके बाद आंदोलन थम-सा गया। दिल्ली की खबरें अखबारों और चैनलों के माध्यम से
मिलती रहीं। स्थानीय स्तर पर भी एक-दो बैठकें हुईं। जिनमें आने का निमंत्रण
मुझे और तरुण जी को भी एस. एम. एस. के जरिए रोहित ने दिया। लेकिन हम दोनों में
से कोई भी बैठक में नहीं गया। इसी बीच बसीर भाई ने एक मिनी प्रदर्शनी लगाई।
जहाँ उन्होंने अपनी एक ताजा पेंटिंग का मुजायरा किया। जिसमें उन्होंने
टोपीधारी अन्ना और केजरीवाल को भ्रष्टाचाररूपी मगरमच्छों पर तीर चलाते चित्रित
किया था। एक तीर तो एक मगरमच्छ के पिछवाड़े में बँधा था। जिसे उनके पिछवाड़े
प्रेम की बानगी के तौर पर देखा गया। अपनी पेंटिंग को लेकर उनकी गलतफहमी का भी
दबी-ढकी जुबान में कई लोग मजाक उड़ा रहे थे। जिसे करोड़ों में बेचने का उनका
मंसूबा था। फिर से मैं और तरुण जी लाइब्रेरी में, यत्र-तत्र अड्डेबाजी में
अपना वक्त बिताने लगे। कुछ दिनों बाद खबर छपी कि किरण बेदी जमशेदपुर आ रही हैं
एक एन.जी.ओ. के सेमिनार में शिरकत करने। फिर दो दिन बाद खबर छपी कि इंडिया
अगेंस्ट करप्शन के तत्वावधान में किरण जी की गोपाल मैदान में सभा होगी। खबर
अधिवक्ता सौरभ सुमन की ओर से आई थी।
तरुण जी ने इस बाबत पूछताछ के लिए दुबे जी को फोन लगाया। उन्होंने खबर की ताईद
की। मगर उनके बातचीत के लहजे से उनकी तल्खी महसूस की जा सकती थी। तरुण जी ने
माजरा क्या है जानने के लिए राजेश्वर जी और पांडा जी को फोन लगाया। रहस्य खुला
कि सौरभ सुमन धरने में अपनी अर्धांगिनी के साथ आते रहे थे। वहीं दोनों
एक-दूसरे के फोटो खींचते और उन्हें एक वेबसाइट बनाकर डाउनलोड कर देते थे। इसी
के बिना पर उन्होंने दिल्ली में कोर कमिटी के सदस्यों के साथ संपर्क कायम कर
लिया था। खुद को आंदोलन का अगुवा मानने की गलतफहमी पाले लोगों को इससे जोर का
झटका लगा था। सोशल नेटवर्किंग के आगे जमीनी हकीकत फीकी पड़ गई। शर्म के मारे
जमीन से जुड़े लोग जमीन में गड़े जा रहे थे। राजीव जी को भी सबने लताड़ा कि आप
क्या खाक वेबसाइट चलाते रहे? अपनी अनदेखी से खार खाए कई लोग खर्चा-पानी लेकर
राजीव जी पर चढ़ बैठे। चिढ़कर कई लोग दिल्ली फोन पर फोन कर रहे थे। झारखंड आ
चुके कोर कमिटी के एक सदस्य से संपर्क साधा गया। उन्होंने मिल-जुलकर कार्यक्रम
करने की नसीहत दी। इससे पुरानी टीम बेहद खफा थी। कार्यक्रम के बहिष्कार का
पहले निर्णय हुआ। मगर विचार-विमर्श के बाद फैसला बदला गया। क्योंकि डर था कि
कार्यक्रम से दूर रहने पर संदेश गलत चला जाएगा। तरुण जी की दलील थी कि आंदोलन
के नाम पर कई लोग माली मदद देते हैं, उन्हें पता चल गया कि इन लोगों के हाथ से
कमान छूट गई है तो वे मदद देना बंद कर सकते हैं। इसलिए झक मारकर इन्हें झुकना
पड़ा।
सभा को लेकर सौरभ जी ने एक बैठक भी बुलाई। मैं भी तरुण जी के साथ पहुँचा। मंच
की तरह सामने लगी कुर्सियों पर सौरभ जी और उनकी अर्धांगिनी काबिज थे। दुबे जी,
पांडा जी वगैरह सामने की कुर्सियों पर श्रोता मात्र बने बैठे थे। मंच पर सफेद
पायजामा-कुर्ता में एक शख्स बैठा हुआ था। पूछने पर पता चला कि ये अफसर साहब है
- सी.के. सिंह प्रशिक्षण लेकर लौटे आए हैं। सौरभ जी ने तटस्थ रहने वाले सभी
लोगों को तवज्जो दी। जिन्हें वे अहानिकर मानते थे। मसलन-पन्नालाल शर्मा, भावेश
जी, बसीर भाई और राजीव जी। मगर खुद को नेतृत्वकर्ता मानने की गुमान में रहने
वालों को उन्होंने फटकने नहीं दिया। बसीर भाई को सौरभ जी ने किरण जी से मिलाकर
उनकी पेंटिंग दिल्ली में किसी बड़ी पार्टी के हाथों बिकवा देने, दिल्ली में
प्रदर्शनी लगवाने, पेंटिंग के पोस्टर बनवाकर उसका आंदोलन में इस्तेमाल करने
जैसे कई वादे कर पटा लिया था। अपनी जलालत से आहत राजीव जी भी सौरभ जी जा मिले
थे। दोनों के दिलों के साथ-साथ बेवसाइटें भी एक हो गईं। सौरभ जी बड़े कार्यों
पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। बेवसाइट जैसे छोटे काम उन्होंने राजीव
जी को ऑफलोड कर दिया।
पांडा जी से हम मिले तो वे फट पड़े कि दुबे जी ने उन्हें गलतफहमी में झूठ बोलकर
रखा कि वे कोर कमेटी के कुछ सदस्यों के साथ संपर्क में हैं। जरूरत पड़ी तो किसी
ने उन्हें पहचाना नहीं। दूसरों पर झूठा रोब गाँठने के लिए वे दिल्ली के नाम पर
लगता है अपने घर में ही फोन लगा देते थे। वे खुद दिल्ली जाने पर विचार कर रहे
हैं।
पुराने आंदोलनकारी भन्नाए हुए थे। राजीव जी और बसीर भाई के पाला बदलने से भी
सभी आहत थे। तरुण जी बड़े खुश थे 'ठीक हुआ दुबे के साथ।' इसी बीच मुझे तरुण जी
ने बताया कि उन्होंने राजेश्वर जी ने बताया है कि दुबे जी, पांडा जी और विनोद
जी दिल्ली गए हुए है। आंदोलन की विरासत पर कब्जा करने की सियासत की मुखालफत
करने। सौरभ जी का पोल खोलने के इरादे से ये तीनों पेपर कटिंग, फोटोग्राफ
इत्यादि लेकर गए हैं। पता नहीं किस वजह से मगर किरण जी का सेमिनार में आना
स्थगित हो गया। सभा भी रद्द हो गई। इसका श्रेय दुबे जी एंड कंपनी ने अपनी
दिल्ली यात्रा को दिया।
सौरभ जी से मात खा गए दुबे जी एंड कंपनी ने जनलोकपाल रथ निकालने का फैसला
लिया, ताकि आंदोलन की आँच धीमी न पड़ने पाए। तरुण जी ने इसकी व्याख्या भी चंदा
उगाही और अपनी पकड़ कायम रखने की चेष्टा के रूप में की। एक छोटे से ट्रक को
बैनरों और माइक सेट से सुज्जित करके रथ करार दे दिया गया। जिसे जिले भर में
दौड़ाया जाने लगा। जल्द ही इसकी निरर्थकता से सयाने लोग ऊब गए। राम अवध जी,
बद्रीनाथ जी और माया जी के हवाले रथ को कर दिया गया। उन्हें भी बेरोकटोक अपनी
वक्तृत्व कला के प्रदर्शन का सुनहरा मौका रास आने लगा।
बीचबीच में कोर कमेटी की खबरें, बयान आते रहे। इसी बीच मुंबई में अन्ना ने
अनशन किया। जो उतना सफल नहीं रहा। लोग नहीं जुटे। संसद की वादाखिलाफी के खिलाफ
टीम अन्ना ने फिर से दिल्ली में अनशन करने का ऐलान किया। इस दफे तबीयत खराब
होने की वजह से अन्ना अनशन पर नहीं बैठे। बल्कि अरविंद केजरीवाल, मनीष
सिसोदिया, गोपाल राय इत्यादि बैठे।
यहाँ जमशेदपुर में भी उसी दिन धरना शुरू हुआ। पुराने योद्धा एक बार फिर से
जुटे। फिर से भाषण, प्रेस-विज्ञप्ति और बाइटों का दौर शुरू हुआ। लेकिन इस बार
राजनेता लोगों को यह समझाने में कामयाब हो रहे थे कि लोकसभा में पेश लोकपाल
बिल से सरकार एक कदम तो आगे बढ़ी है। जनलोकपाल जैसी सर्वशक्तिशाली संस्था के
तानाशाह बनने का खतरा है। टीम अन्ना की अड़ियल छवि बनती जा रही थी।
दिल्ली के रामलीला मैदान में चल रहा अनशन जोर नहीं पकड़ पा रहा था। मधुमेह का
मरीज होने के कारण अरविंद केजरीवाल की हालत खस्ता होने लगी थी। चंद रोज बाद
आंदोलन को गति देने के लिए अन्ना हजारे भी धरने पर बैठे। मगर अन्ना और अरविंद
की तबीयत बिगड़ने लगी। केंद्र सरकार इससे बेपरवाह थी। अंततः कोर कमेटी ने
विचार-विमर्श होने लगा राजनीति में उतरने का। अन्ना, किरण बेदी समेत कई लोग
इससे सहमत नहीं थे। पर अधिकतर लोगों ने इसका समर्थन किया।
यहाँ जमशेदपुर में भी इस अहम मसले पर मंथन होने लगा। यहाँ भी स्पष्टतः दो खेमे
बन गए। दुबे जी, राजेश्वर जी, परमजीत, रोहित, पांडा जी इत्यादि कई लोग राजनीति
में शामिल होने के पक्ष में थे। जबकि विनोद सिंह, राम अवध जी, अफसर साहब, जज
साहब, भावेश जी बगैरा इसके खिलाफ थे। कुछ 'देखो और इंतजार करो' के मोड में थे।
आखिरकार राजनीति के जरिए जनलोकपाल लाने के ऐलान के साथ अनशन समाप्त हुआ। यहाँ
दुबे जी ने माइक से उक्त आशय का ऐलान किया। लगे हाथ लोगों से भावी राजनैतिक दल
को भविष्य में समर्थन देने की भी अपील की। तरुण जी ने मुझसे कहा - 'देखे न,
बोले थे न, आप कह रहे थे कहाँ से कमाई करेंगे? अब राजनीतिक दल बन रहा है। जमकर
कमाएँगे... भ्रष्टाचार से लड़ाई तो केवल दिखावा है, सबको सत्ता चाहिए। थोड़ा नाम
कमा लिया... बस हो गया...' दुबे जी का भाषण खत्म होने तक परमजीत जोश में आ
गया। माइक थामकर उसने नारा बुलंद किया, 'वंदे मातरम'। गोलचक्कर के पास से गुजर
रहे कुछ लोग भी पंडाल में और आस-पास जुट गए थे। वे भी परमजीत के स्वर में स्वर
मिलाने लगे। इसी बीच परमजीत ने अपना मोबाइल निकालकर सीतेश को तस्वीर लेने के
लिए दिया।
तरुण जी अब भी लगातार बोले जा रहे थे। वे मुझसे ही मुखातिब थे। 'अब तो राजनीति
में जाकर पैसा और पावर भी इन्हें मिलेगा... देखिए कितने खुश हैं ये लोग.. चलिए
घर चलते हैं।'
'मैंने तो पहले ही कहा था' किस्म के उनके हाव-भाव से मुझे चिढ़ होने लगी। मुझे
लगा इस आदमी को तो आंदोलन से कोई मतलब कभी था ही नहीं। इन्हें तो बस
निंदा-चुगली में ही मजा आता रहा। बद्रीनाथ जी ने भी 'भारत माता की जय' नारे
लगाए। नारों के शोर में सब कुछ डूब गया। तरुण जी अब भी बोल रहे थे। मुझे उनकी
आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। झल्लाहट में वे बार-बार घर चलने के लिए मुझसे कह
रहे थे। मैं उन्हें अनसुना कर दे रहा था। मुझे उन पर आज बेहद गुस्सा आ रहा था।
धीरे-धीरे उनका मूल चरित्र मैं जान गया था, उन्हें दुनिया की अधिकांश चीजों से
शिकायत हैं। संसार में ऐसा कोई खुशनसीब नहीं है, जिसकी खुले दिल से इन्होंने
तारीफ की हों। किसी की प्रशंसा भी करते तो लाचारी में, कंजूसी से, दिल पर
पत्थर रखकर। हर चीज, हर आदमी में कोई न कोई नुक्स निकाल लेने की विलक्षण
प्रतिभा उनमें हैं। वे चिर असंतुष्ट हैं - उनकी शिकायतें शाश्वत हैं। किसी
वाग्युद्ध में न उलझ जाने के भय से ऐसी नौबत आने पर मैं चुप रह जाता था। हर
मुद्दे को वे अपने नकारात्मकता के चश्मे से ही देखते। जो अब तक मैं झेलता आया
था। पर आज उनकी खुशी मुझे गलीज-सी लगने लगी। पता नहीं क्या चाहिए इस शख्स को।
ये भी चोर, वे भी चोर। कितनी हार्दिक खुशी हो रही हैं इन्हें। मानो, मन माँगी
मुराद मिल गई हो, आंदोलन के पतन पर... जिसे उन्होंने पतन मान लिया है। अब तक
चुप थे शायद इसी क्षण की प्रतीक्षा में। मुझे लग रहा था - गहरे अवचेतन में
सत्ता-समर्थक होते हैं ऐसे लोग। जिनकी सहानुभूति राज करने वालों के साथ ही
होती हैं। भले दिखाने के लिए ऊपरी तौर पर गाली दें। पर, अंतःकरण से उन्हें
चुनौती देने वालों के खिलाफ रहते हैं। ऐसे लोगों की आत्मा फिरंगियों की बेदखली
पर भी जार-जार रोई होगी। कोई अच्छा और ईमानदार भी हो सकता है, कोई बिना किसी
लोभ के भी कोई काम कर सकता है, यह मानने को ये कतई तैयार ही नहीं हैं। अपनी
हीनता से परिचित ऐसे लोगों को किसी पर कीचड़ उछालने के लिए कुछ तत्काल नहीं
मिले तो ये इंतजार भी कर सकते हैं, उसके गिरने का और गिरते ही खुशी में ताली
पीटने लगते हैं। वह न गिरे तो इन्हें तकलीफ होती हैं। आंदोलन में भटकाव भी आ
गया है तो यह तो दुख की बात है। मगर, इनकी तो बाँछें खिल गई हैं। कैसा बीमार
आदमी है? खीझकर उन्होंने कहा 'चलिए।' शोरगुल के बीच ही मेरा मन कसैला हो गया।
मैंने भी तल्खी से कहा दिया, 'जाइए, मेरे को आपके साथ नहीं जाना।' भौंचक्के से
मुझे देखते रहे। राजेश्वर जी ने माइक से नारा लगाया, ''भारऽऽत... माता की... '
मैंने भी सबके स्वर में स्वर मिलाया, 'जयऽऽ।'